Friday, 8 April 2016

12 अवस्थाएं


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॥॥परमपूज्य श्रीमाताजी श्रीनिर्मलादेवी द्वारा बताई गई सहजयोगियों की अर्न्‍तस्थित बारह अवस्थाऐं॥॥
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1-अपने अहं के कारण कुछ अति दुर्बल हैं। वे किसी के साथ नहीं निभा सकते। वे लोगों पर चिल्लाते हैं और उन्हें परेशान करते है। अपनी सीमा उन्हें नहीं सूझती। उग्र स्वभाव के वे लोग सामूहिक नही हो पाते। प्रेम की अभिव्यक्ति वे कभी नहीं करते। इस प्रकार के सहजयोगी एक-एक करके अपना रंग दिखा रहे है। उनमें से कुछ सीख रहें है।
2-दूसरी तरह के सहजयोगी अत्यन्त स्वकेन्द्रित हैं। उनमें से कुछ तो केवल अपनी पत्नियों, बच्चो तथा घर को ही जानते हैं। उनके लिए यही अत्यन्त महत्वपूर्ण है, लोगो को सहजयोग और अपनी मुक्ति से अधिक चिन्ता अपने बच्चों की है। स्त्रियॉ अपने पतियों को आश्रमों (केन्द्र) से निकालने का प्रयत्न करती है। सामूहिकता से बाहर होने के लिए वे बहाने खोजती रहती है। हर समय आपको परखा जा रहा है आप भी स्वयं को परखिए।
3-कुछ सहजयोगी भी सदा किसी न किसी पर दोष लगाते रहते है। ऐसे लोग कभी नही सुधर सकते, उन्हें अन्तर्दर्शन करना चाहिए। हमें अपना सामना करना है। हम अर्न्‍तदर्शन करते हैं या नही ?
4-एक अन्य प्रकार के सहजयोगी वे हैं जो घर पर माताजी की पूजा करते है पर वे सामूहिकता में नही आ सकते। क्योंकि केन्द्र थोडी दूरी पर हैं। परन्तु यदि उन्हें अपने पुत्र से मिलने जाना हो तो वे मीलों दूर जायेंगे। अपने परिवार या व्यापार के लिए यदि उन्हें कुछ करना हो तो वे इसके पीछे दौडेंगें।
5-सहजयोग में किसी को नौकरी छोडने के लिए या रहन-सहन का ढंग बदलने के लिए नहीं कहा जाता, फिर भी प्राथमिकता तो देखनी ही है। लोग काम और धनार्जन में व्यस्त है, यश कमाने में लगे है, पर परमात्मा के लिए उनके पास समय नहीं है। मॉ के सम्मुख झुकने मात्र से वे अपने, अपने कार्य के लिए तथा अपनी रचनात्मकता के लिए पूर्ण सुरक्षा की अपेक्षा करते हैं।
6-ऐसे सहजयोगी हैं जो समझते है कि धन अति महत्वपूर्ण हैं। सहजयोग में हम जब भी चाहें धन प्राप्त कर सकते हैं। कुछ लोग कहते है कि मैं व्यापार शुरू कर रहा हूं, क्योंकि लाभ का 0.001 प्रतिशत मैं सहजयोग को देना चाहता हूॅ। ये सब तो आपकी मॉ का है, इस प्रकार का दृष्टिकोण तो तभी आता है, जब आप धन को अत्यन्त महत्वपूर्ण समझते हों। कुछ परमात्मा को नही देख पाते, वे धन के सूक्ष्म लाभ को नहीं जानते। एक-एक पाई का हिसाब वे बडी     सावधानी से करते है। कठिनाईपूर्वक कमाए गए अपने धन को वे आध्यात्मिकता पर व्यर्थ नहीं करते। कुछ लोग तो सहजयोग की एक पुस्तक भी नहीं खरीदते। एक टेप वे नही खरीदते। इसकी भी वे कॉपी बनवा लेते है। खर्च करना आवश्यक नही, बात तो केवल दृष्टिकोण की है। वास्तविकता में जो र्इमानदार हैं और सत्य पथ पर चलना चाहते है उन्हें हर क्षण अंर्तदर्शन करके जानना है कि हम सत्य से कितने दूर है।
7-एक अन्य प्रकार के सहजयोगी वे हैं जो उत्सव मनाने वालो जैसे है। वे एकत्र होगें, क्योंकि उनमें किसी चीज से, समूह से सम्बन्धित होने का भाव होता है। फिर आप सभी प्रकार के बंधनो तथा नियमें में बंधे, अपने को धोखा देने लगते है। आपको बहुत खुशी होती है।
8-कुछ धर्मो के लोग सिर या दाढी या मूछ मुडें होते हैं। वे नहीं जानते कि वास्तविकता वैचित्रय से पूर्ण है। वैचित्रय होना ही चाहिए। वैचित्रय ही सौंदर्य का कारण है। बिना वैचित्रय के आपका व्यक्तित्व कैसे प्रभावशाली हो सकता है ? इन मुर्खतापूर्ण विचारों से आप कैसे बंध सकते है ? वैचित्रय ही आपको आन्तरिक तथा बाह्रय व्यक्तित्व प्रदान करता है। इस व्यक्तित्व का आनन्द जब आप लेने लगते है तभी आप सहजयोगी है। आप ऐसे व्यक्तित्व होने चाहिए जो स्वयं को देखते है। परन्तु इसके विपरीत हम व्यक्तित्व की अपनी धारणाओं के दास बन अपने अहं के माध्यम से अपने व्यक्तित्व का प्रक्षेपण (प्रदर्शन) कर स्वयं को अत्यन्त विशेष दर्शाने का प्रयत्न करते है। सहजयोग इसके बिल्कुल विपरीत है। हम सब एक व्यक्तित्व है। हम सब सन्त है और सन्तो के रूप में ही हमारा सम्मान होना चाहिए। हम सबका एक ही जैसा व्यक्तित्व होना आवश्यक नहीं। हमारे बातचीत करने का, कार्य करने का ढंग भिन्न-भिन्न होना चाहिए-परमात्मा के प्रेम की अभिव्यक्ति। हमारे अन्दर प्रकाश होने के कारण हम पूर्णतया स्वतंत्र है। हम जानते है कि किस सीमा तक जाना है और ठीक रास्ता कौन-सा है। लोग समझ बैठते हैं कि सहजयोग पूर्ण स्वतंत्रता है। आप क्योंकि प्रकाशित है इसलिए पूर्णतया स्वतंत्र है। सभी अवतरणों द्वारा सिखाए गए धर्म आपके अंग-प्रत्यंग बन जाते है। तभी आप वास्तव में ईसाई या मुसलमान बनते हैं और समझ पाते है कि सभी धर्म उस सागर का एक अंश मात्र है। एक तरह से आप वास्तविक धार्मिक व्यक्तित्व बन जाते है। उत्थान ही धर्म का आधार है।
9-कुछ सहजयोगी अपने प्रकाश के विषय में चिन्तित है, वे चाहते हैं कि दीप सदा जलता रहे और न केवल उन्हें बल्कि अन्य लोगो को भी प्रकाशित करे। इस लक्ष्य के लिए वे कार्य करते है। वे इसका दायित्व लेते है। जंगल में बैठे वे ध्यान नहीं करते। आपको कार्य करना है। दूसरों तक सहजयोग पहूंचाना हैं। परमात्मा के साथ एकाकारिता का सुन्दर अनुभव आपको उन्हे देना है। इसका आनन्द भी आपको लेना है। अपने प्याले को भर कर बहुत से दूसरे जिज्ञासुओं को देने के लिए ही सहजयोग है। छोटी-छोटी चीजों के लिए वे मेरे पास नहीं आते। पूरे ब्रह्माण्ड को ज्योतिर्मय करने का स्वप्न होना चाहिए। आत्मसाक्षात्कार तथा कुण्डलिनी की जागृति द्वारा यह सर्वव्यापक धर्म लोगो के जीवन में लाया जाना चाहिए। लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने के लिए वे जी जान से प्रयत्न करते है।
10-कुछ सहजयोगी ऐसे भी है जिन्हें अहसास है कि परम-चैतन्य ही उनके माध्यम से सभी कुछ कर रहा है। वे यंत्र मात्र हैं। कभी यदि वे असफल हो जाए तो उनमें संदेह उत्पन्न हो जाता है और परम-चैतन्य के प्रति समर्पित होने पर भी यह संदेह उनमें बना रहता है।
11-कुछ अन्य लोग किसी चीज पर शक नहीं करते। वे जानते है कि परम-चैतन्य ही सहायता कर रहा है। वे समझ जाते है कि हमें शक्तियां प्राप्त हो गयी है और हम परमात्मा से जुड गए है। हममें शक्तियां हे। कभी-कभी उन्हें भी संदेह हो जाता है। अहं बडने के डर से कुछ लोग कोई कार्य नहीं करते। अपने अहं से वे भयभीत है। तब अहं सूक्ष्म रूप से उनका पीछा करता है। पर कुछ जानते है कि शक्तियों का वरदान उन्हें प्राप्त हुआ है और अपने अन्दर ही इन शक्तियो को अधिकाधिक खोजा जा सकता है। उन्हें स्वयं पर विश्वास है। उन्हें सहजयोग पर विश्वास है । मुझ पर और परम-चैतन्य पर विश्वास है। बहुत ही सीधे सादे लोग हैं और सहजयोग को कार्यान्वित कर रहे हैं।
12-एक अन्य प्रकार के भी सहजयोगी हैं जो पूर्णतया शक्तिशाली है। वे अपनी शक्ति को खोज निकालते हैं। अर्न्‍तदर्शन में वे इस शक्ति को देखते हैं तथा इसके विषय में विश्वस्त है। यही निर्विकल्प स्थिति है।
मुझमें आपका विश्वास है और मुझसे कुछ पाने के लिए आप मेरी पूजा करते है। परन्तु समझ लीजिए कि मैंने आपको भी महान बना दिया है। आपको अपनी शक्तियॉ विकसित करनी है। केवल मेरी शक्तियों पर ही निर्भर नहीं रहना। केवल अपनी मॉ की दी हुई शकित्यों का ही उपयोग नही करना, स्वयं को भी उसी स्तर तक उठाना है। आप प्रयत्न कर सकते है। अर्न्‍तदर्शन द्वारा आप ऐसा कर सकते हैं। ये सभी शक्तियॉ आपके अन्दर है। बिना स्वयं को उत्तरदायी समझे, विकसित होकर आपको उत्तरदायित्व लेना है। हमें अन्य शिष्यों से आगे बडना है। ऐसा किए बिना हम सहजयोग को मूर्खता के अन्य सागर में डूबो भी सकते है। अर्न्‍तदर्शन, सूझबूझ तथा वास्तविकता के अन्य प्रमाण द्वारा हमें अपने व्यक्तित्व को विकसित करना है।
उच्चावस्था प्राप्त करने के लिए हमें इन अवस्थाओं में से गुंजरना है। सर्वोच्च अवस्था को चौदहवीं अवस्था कहते है जहॉ आप केवल यंत्र मात्र होते है और परम-चैतन्य के हाथों के खिलौने बन, आप यह भी नही जानते कि आप क्या है ? सामूहिकता मे प्रकट होने वाली घृणा को कम करने का प्रयास कीजिए। ज्योंहि यह ‘‘मैं‘‘ भाव समाप्त होगा। सभी शक्तियां आपमें आने लगेगी। यह खोखली बांसुरी की तरह है। किसी भी v  अवस्था में यह बजेगी नहीं। हमारे सभी विचारों और बंधनो में से अहं, कि ‘‘मैं यह कार्य कर रहा हू’, सबसे बुरा हैं। इसका समाप्त होना आवश् है, क्योंकि इस तरह सोचते हुए हम कभी आनन्द नहीं ले सकते। जब तक आप स्वयं को कर्त्ता समझते रहेंगे आप आनन्द के सागर में छलांग नहीं लगा सकतें।
अत: हमारे अर्न्‍तस्थित इन चौदह अवस्थाओं के स्तरो को पार कर अचानक हम सुन्दर कमलों की तरह खिल उठते हैं। 
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--- ईस्टर पूजा, इटली, 19 अप्रेल 1992
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